दुर्योधन की मनोदशा और युद्ध का शंखनाद: एक गहन विश्लेषण - Bhagavad Gita 1.12-14

मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दुर्योधन की स्थिति और युद्ध का शंखनाद: रजोगुण के प्रभावों का विस्तार से अध्ययन करें।


#1. प्रस्तावना


महाभारत के युद्ध का अध्ययन न केवल एक ऐतिहासिक घटना के रूप में महत्वपूर्ण है, बल्कि यह मानव प्रकृति और उसके गुणों का भी गहराई से विश्लेषण प्रस्तुत करता है। दुर्योधन और उसके साथियों के व्यवहार को समझकर हम यह जान सकते हैं कि कैसे रजोगुणी व्यक्ति अपने स्वार्थ और अहंकार के कारण अंधे हो जाते हैं। दुर्योधन की स्थिति इस बात का प्रमाण है कि कैसे एक व्यक्ति अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए सभी नैतिक मूल्यों को दरकिनार कर सकता है। इस श्लोक में हम यह जानने का प्रयास करेंगे कि कैसे दुर्योधन की तुलना एक आम इंसान से की जा सकती है, जो माया से बंधा हुआ होता है। इसके अलावा, हम भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के व्यवहार को देखेंगे जो दुर्योधन के प्रति उनकी स्वाभाविक दया को दर्शाता है, लेकिन साथ ही यह भी संकेत देते हैं कि विजय की सच्ची आशा पांडवों के पक्ष में है, क्योंकि उनके साथ भगवान कृष्ण हैं। इस संदर्भ में, यह समझना आवश्यक है कि कैसे व्यक्ति अपने आंतरिक गुणों को पहचानकर अपने जीवन में सतोगुण की ओर अग्रसर हो सकता है।


तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः |
सिंहनादं विनद्योच्चैः शङ्खं दध्मौ प्रतापवान् || भ.गी. 1.१२ ||

तब कुरुवंश के वयोवृद्ध परम प्रतापी एवं वृद्ध पितामह ने सिंह-गर्जना की सी ध्वनि करने वाले अपने शंख को उच्च स्वर से बजाया, जिससे दुर्योधन को हर्ष हुआ।”


#2. युद्ध से पहले द्रोणाचार्य के पास युधिष्ठिर का जाना


महाभारत के युद्ध से पहले युधिष्ठिर ने द्रोणाचार्य के पास जाकर आशीर्वाद लिया। युधिष्ठिर का उद्देश्य द्रोणाचार्य से विजय का आशीर्वाद प्राप्त करना था, हालांकि वह जानते थे कि द्रोणाचार्य कौरवों की ओर से युद्ध कर रहे थे। यह यात्रा युधिष्ठिर के विनम्र और धर्मनिष्ठ स्वभाव को दर्शाती है। युधिष्ठिर ने न केवल आशीर्वाद प्राप्त किया, बल्कि द्रोणाचार्य और भीष्म से यह भी पूछा कि उन्हें कैसे पराजित किया जा सकता है। यह दर्शाता है कि युधिष्ठिर युद्ध में विजय के लिए हर संभव तैयारी कर रहे थे, साथ ही अपने गुरुजनों के प्रति सम्मान भी प्रकट कर रहे थे। द्रोणाचार्य और भीष्म ने युधिष्ठिर को उनकी मृत्यु का रहस्य बताया, जिससे स्पष्ट होता है कि वे हृदय से पांडवों के पक्ष में थे, भले ही वे कर्तव्यवश दुर्योधन के पक्ष में युद्ध कर रहे थे। यह घटना महाभारत के कई जटिल संबंधों और धर्मसंकटों को उजागर करती है, जहां व्यक्तिगत भावनाएं और कर्तव्य के बीच संघर्ष होता है। युधिष्ठिर की यह यात्रा इस बात का प्रतीक है कि सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति हमेशा सम्मान और समर्थन प्राप्त करता है।


#3. आम संसारी मनुष्य और दुर्योधन की तुलना



महाभारत में दुर्योधन का चरित्र आम संसारी मनुष्य की मानसिकता का प्रतीक है। दुर्योधन अपने स्वार्थ और अहंकार के कारण अपने परिवार और राज्य का नाश कर बैठा। वह केवल अपने लाभ की सोचता था और पांडवों के प्रति उसका द्वेष और ईर्ष्या उसे अधोगति की ओर ले गए। आम संसारी मनुष्य भी अक्सर अपने स्वार्थ और लालच के वशीभूत होकर गलत निर्णय लेता है। जैसे दुर्योधन को पांडवों से ईर्ष्या थी, वैसे ही सामान्य मनुष्य भी दूसरों की सफलता को देखकर ईर्ष्या महसूस करता है। संसार के मोह में फंसा हुआ व्यक्ति सांसारिक सुखों और भौतिक वस्तुओं के पीछे भागता है, जैसे दुर्योधन ने पांडवों की सम्पत्ति और राज्य छीनने का प्रयास किया। इस प्रकार, दुर्योधन का चरित्र यह सिखाता है कि स्वार्थ, ईर्ष्या और अधर्म के मार्ग पर चलने वाला व्यक्ति अंततः विनाश की ओर अग्रसर होता है। इसलिए, प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह धर्म और सत्य के मार्ग पर चले, जिससे न केवल वह स्वयं का उत्थान कर सके, बल्कि समाज और परिवार के लिए भी आदर्श बन सके।


#4. संसार के मोह और कृष्ण की शरणागति



महाभारत में संसार के मोह और कृष्ण की शरणागति का महत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। जब द्रौपदी का चीर हरण हो रहा था, तब उसने अपने पतियों और गुरुजनों से सहायता मांगी, लेकिन कोई भी उसकी रक्षा नहीं कर सका। अंततः उसने भगवान कृष्ण को पुकारा, जिन्होंने उसकी रक्षा की। यह घटना दर्शाती है कि संसार में किसी भी व्यक्ति या वस्तु पर पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता। सांसारिक मोह हमें अस्थायी सुख दे सकता है, लेकिन स्थायी शांति और सुरक्षा केवल ईश्वर की शरणागति में ही प्राप्त होती है। भगवान कृष्ण की शरण में जाने से व्यक्ति को वास्तविक ज्ञान और सुरक्षा मिलती है। संसार के मोह में फंसकर व्यक्ति अपने वास्तविक उद्देश्य को भूल जाता है और भौतिक सुखों के पीछे भागता है। लेकिन जब वह भगवान की शरण में जाता है, तो उसे आत्मिक शांति और स्थायी सुख की प्राप्ति होती है। इसलिए, हमें संसार के मोह को त्यागकर भगवान कृष्ण की शरण में जाना चाहिए, जिससे हम अपने जीवन में सच्ची शांति और मुक्ति प्राप्त कर सकें।


#5. रजोगुणी व्यक्ति के लक्षण


रजोगुणी व्यक्ति के लक्षणों में राग, द्वेष, और कर्मफल की इच्छा प्रमुख हैं। ऐसे व्यक्ति में लोभ और हिंसा की प्रवृत्ति होती है। वे अपवित्र दृष्टि रखते हैं और हर्ष-शोक के चक्र में फंसे रहते हैं। राग का अर्थ है भौतिक वस्तुओं या व्यक्तियों के प्रति गहरा आकर्षण, जो स्वार्थ पर आधारित होता है। द्वेष तब उत्पन्न होता है जब इच्छाएँ पूरी नहीं होतीं। रजोगुणी व्यक्ति हमेशा कर्मफल की चिंता में रहता है, और लोभ के कारण अधिक पाने की इच्छा रखता है। वे हिंसा और ईर्ष्या से ग्रस्त होते हैं, जिससे उनके जीवन में अशांति बनी रहती है। ऐसे व्यक्ति जल्दी ही हर्षित और जल्दी ही शोकमग्न हो जाते हैं। इन लक्षणों को पहचानकर व्यक्ति अपने अंदर के रजोगुण को नियंत्रित कर सकता है और सतोगुण की ओर बढ़ सकता है। इसके लिए भक्ति मार्ग और ज्ञान का अनुशीलन आवश्यक है, जिससे व्यक्ति संतोष और स्थिरता प्राप्त कर सकता है।


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#6. दुर्योधन का राग और द्रोणाचार्य का निर्णय


महाभारत के युद्ध में दुर्योधन का राग और द्रोणाचार्य का निर्णय महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दुर्योधन का राग अपनी सेना और राज्य की शक्ति के प्रति था, जिससे वह अंधा हो गया था। वह अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए द्रोणाचार्य और भीष्म जैसे महान योद्धाओं का भी उपयोग करना चाहता था। लेकिन द्रोणाचार्य और भीष्म जानते थे कि दुर्योधन का उद्देश्य धर्म की स्थापना नहीं है, बल्कि सत्ता की लालसा है। इसलिए, उन्होंने दुर्योधन को कोई उत्तर नहीं दिया। यह दर्शाता है कि वे हृदय से पांडवों के पक्ष में थे। द्रोण और भीष्म का मौन समर्थन पांडवों की विजय का संकेत था। द्रोणाचार्य का यह निर्णय दर्शाता है कि वे विवश होकर दुर्योधन के पक्ष में युद्ध कर रहे थे, लेकिन उनकी आत्मा धर्म की ओर थी। यह स्थिति आम जीवन में भी देखी जा सकती है, जब व्यक्ति अपने स्वार्थ के कारण दूसरों का उपयोग करता है, लेकिन अंततः धर्म की विजय होती है।


#7. राग, द्वेष और दुर्योधन की स्थिति


महाभारत के संदर्भ में दुर्योधन का चरित्र एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो राग और द्वेष से भरा हुआ है। दुर्योधन की स्थिति एक आम संसारिक मनुष्य से तुलना की जा सकती है। वह अपने स्वार्थ के कारण पांडवों के प्रति द्वेष रखता था और अपने राज्य को बढ़ाने की लालसा में लगा रहता था। द्रोणाचार्य और भीष्म जैसे महान योद्धाओं का समर्थन पाने के लिए वह उनके प्रति झूठा सम्मान दिखाता था, ताकि उसकी इच्छाएं पूर्ण हो सकें। यह राग और द्वेष की भावना ही थी जिसने उसे पांडवों के खिलाफ खड़ा किया।

वह अपने राज्य और संपत्ति को बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकता था। उसकी स्थिति को देखकर यह स्पष्ट होता है कि वह रजोगुणी व्यक्ति था, जो राग, द्वेष, लोभ और हिंसा जैसी भावनाओं से ग्रस्त था। उसके जीवन का मुख्य उद्देश्य केवल अपनी तृप्ति और इच्छाओं की पूर्ति करना था। इस प्रकार, दुर्योधन की स्थिति हमें यह सिखाती है कि राग और द्वेष से मुक्त होकर हमें अपने जीवन को धर्म और सतोगुण की ओर अग्रसर करना चाहिए।


#8. दुर्योधन का लोभ और हिंसा


दुर्योधन का चरित्र महाभारत में लोभ और हिंसा का प्रतीक है। वह केवल अपने स्वार्थ के लिए ही पांडवों के प्रति द्वेष और हिंसा की भावना रखता था। उसके पास हस्तिनापुर का राज्य, वैभव और संपत्ति होते हुए भी, वह इन्द्रप्रस्थ को हड़पने की इच्छा रखता था। यह उसकी लोभ प्रवृत्ति को दर्शाता है। दुर्योधन का लोभ इतना अधिक था कि वह द्रोपदी के प्रति भी आसक्त था।

उसकी हिंसा की भावना ने उसे पांडवों को मारने की योजना बनाने पर मजबूर किया। वह अपने स्वार्थ और लोभ के कारण किसी भी हद तक जा सकता था, चाहे वह छल-प्रपंच से ही क्यों न हो। उसकी यह प्रवृत्ति उसे एक रजोगुणी व्यक्ति बनाती है, जो अपने उद्देश्य को पाने के लिए हिंसा और ईर्ष्या का सहारा लेता है। दुर्योधन का यह चरित्र हमें यह सिखाता है कि लोभ और हिंसा के मार्ग पर चलने से अंततः विनाश ही होता है।


#9. दुर्योधन की अपवित्र दृष्टि


दुर्योधन का चरित्र महाभारत में अपवित्र दृष्टि का प्रतिनिधित्व करता है। उसकी दृष्टि हमेशा दूसरों की संपत्ति, स्त्री और राज्य पर होती थी। दुर्योधन की यह अपवित्र दृष्टि उसे द्रोपदी के चीरहरण के प्रयास तक ले जाती है। वह अपने राज्य, वैभव और संपत्ति के बावजूद भी, इन्द्रप्रस्थ और द्रोपदी को हड़पने की इच्छा रखता था।

उसकी यह प्रवृत्ति उसे एक रजोगुणी व्यक्ति बनाती है, जो अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। दुर्योधन की अपवित्र दृष्टि केवल उसकी अपनी तृष्णा और लालसा को दर्शाती है, जो उसे पांडवों के खिलाफ खड़ा करती है। यह हमें यह सिखाती है कि अपवित्र दृष्टि और लालसा से मुक्त होकर हमें अपने जीवन को धर्म और सतोगुण की ओर अग्रसर करना चाहिए।


#10. रजोगुणी व्यक्ति का हर्ष और शोक


रजोगुणी व्यक्ति की पहचान उसके हर्ष और शोक की प्रवृत्ति से होती है। ऐसे व्यक्ति को किसी भी सफलता पर अत्यधिक हर्ष होता है और किसी भी असफलता पर गहरा शोक। दुर्योधन का चरित्र इसी प्रवृत्ति का उदाहरण है। जब वह पांडवों की सेना को देखता है, तो भयभीत हो जाता है और जब उसे अपने पक्ष में कोई समर्थन मिलता है, तो अत्यधिक हर्षित हो जाता है।

रजोगुणी व्यक्ति की यह स्थिति उसे मानसिक रूप से अस्थिर बनाती है, क्योंकि वह अपनी भावनाओं को संतुलित नहीं कर पाता। उसकी यह प्रवृत्ति उसे अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किसी भी हद तक जाने पर मजबूर करती है। दुर्योधन का यह चरित्र हमें यह सिखाता है कि हर्ष और शोक की इस प्रवृत्ति से बचकर, हमें अपने जीवन को संतुलित और स्थिर बनाना चाहिए।


#11. रजोगुण से सतोगुण में परिवर्तन


रजोगुण से सतोगुण की ओर परिवर्तन एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है, जो व्यक्ति के जीवन में स्थिरता और संतुलन लाती है। यह परिवर्तन भक्ति और ज्ञान के माध्यम से संभव है। जब व्यक्ति अपने जीवन में भक्ति के नियमों को अपनाता है और ज्ञान का अनुशीलन करता है, तो वह धीरे-धीरे सतोगुण की ओर अग्रसर होता है।

दुर्योधन की स्थिति से हमें यह सीख मिलती है कि रजोगुणी प्रवृत्तियों से मुक्त होकर, हमें अपने जीवन को धर्म और सतोगुण की दिशा में ले जाना चाहिए। यह परिवर्तन हमें लोभ, द्वेष और हिंसा से मुक्त करता है और हमारे जीवन को शांति और संतोष की ओर ले जाता है। इस प्रकार, सतोगुण की प्राप्ति के लिए हमें भक्ति और ज्ञान के मार्ग पर चलना आवश्यक है।


#12. ज्ञान और भक्ति से सतोगुण की प्राप्ति


ज्ञान और भक्ति के माध्यम से सतोगुण की प्राप्ति एक व्यक्ति के जीवन में संतुलन और शांति लाती है। ज्ञान का अनुशीलन और भक्ति के नियमों का पालन व्यक्ति को रजोगुण और तमोगुण से मुक्त करता है। यह प्रक्रिया व्यक्ति को धर्म और सत्य की दिशा में ले जाती है।

जब व्यक्ति गुरु के मार्गदर्शन में ज्ञान प्राप्त करता है और भक्ति के नियमों का पालन करता है, तो वह धीरे-धीरे सतोगुण की ओर अग्रसर होता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति अपनी इच्छाओं और तृष्णाओं से मुक्त होकर, अपने जीवन को संतुलित और स्थिर बनाता है। ज्ञान और भक्ति के इस मार्ग पर चलकर ही व्यक्ति सत्य और धर्म की प्राप्ति कर सकता है।


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#13. भीष्म पितामह की भूमिका और प्रताप


भीष्म पितामह महाभारत के एक प्रमुख पात्र हैं, जिनकी बुद्धिमत्ता और प्रताप का वर्णन किया जाता है। वे कुरुवंश के वयोवृद्ध एवं ज्ञान वृद्ध योद्धा थे, जिनकी उपस्थिति युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भीष्म पितामह का प्रताप और निर्भीकता उन्हें एक महान योद्धा बनाती है।

उनकी बुद्धिमत्ता और ज्ञान के कारण, वे दुर्योधन के मनोभाव को समझते हुए भी उसे संतुष्ट करने के लिए शंख बजाते हैं। उनका यह कार्य केवल दुर्योधन को प्रसन्न करने के लिए नहीं, बल्कि यह संकेत देने के लिए भी था कि जहाँ भगवान कृष्ण हैं, वहीं विजय है। भीष्म पितामह का यह चरित्र हमें यह सिखाता है कि एक सच्चे योद्धा को केवल बाहरी शक्ति ही नहीं, बल्कि आंतरिक ज्ञान और बुद्धिमत्ता भी चाहिए होती है।


#14. शंख बजाने का सांकेतिक अर्थ


महाभारत के युद्ध में शंख बजाने का एक विशेष सांकेतिक अर्थ है। भीष्म पितामह के शंख बजाने का तात्पर्य दुर्योधन को हर्षित करना था, लेकिन यह भी संकेत था कि युद्ध की घोषणा हो चुकी है। शंख की ध्वनि केवल बाहरी ध्वनि नहीं थी, बल्कि यह एक सांकेतिक संदेश था कि युद्ध के लिए तैयार रहना चाहिए।

भीष्म पितामह के शंख की तुलना में कृष्ण और अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है, जो यह दर्शाता है कि युद्ध में विजय निश्चित है। यह शंख ध्वनि हमें यह सिखाती है कि जीवन में कोई भी कार्य शुरू करने से पहले उचित तैयारी और संकल्प आवश्यक है। शंख की यह दिव्य ध्वनि हमें यह भी बताती है कि सत्य और धर्म के मार्ग पर चलने से ही विजय प्राप्त होती है।


#15. युद्ध की घोषणा और शंख ध्वनि


ततः शङ्खाश्र्च भेर्यश्र्च पणवानकगोमुखाः |
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोSभवत् || भ.गी. 1. १३ ||

तत्पश्चात् शंख, नगाड़े, बिगुल, तुरही तथा सींग सहसा एकसाथ बज उठे | वह समवेत स्वर अत्यन्त कोलाहलपूर्ण था |


महाभारत के युद्ध की शुरुआत शंख ध्वनि से होती है, जो युद्ध की घोषणा का प्रतीक है। भीष्म पितामह द्वारा शंख बजाने के बाद, अन्य योद्धाओं ने भी अपने-अपने शंख बजाए, जिससे युद्ध के प्रारंभ का संकेत मिला। यह ध्वनि केवल एक ध्वनि नहीं थी, बल्कि यह एक संदेश था कि युद्ध अब शुरू होने वाला है।

शंख की यह ध्वनि हमें यह सिखाती है कि किसी भी महत्वपूर्ण कार्य की शुरुआत धैर्य और संकल्प के साथ करनी चाहिए। यह ध्वनि यह भी दर्शाती है कि युद्ध की स्थिति में एक योद्धा को हमेशा तैयार रहना चाहिए। शंख की यह ध्वनि महाभारत के युद्ध में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और यह दर्शाती है कि जीवन में किसी भी चुनौती का सामना धैर्य और संकल्प के साथ ही करना चाहिए।


#16. कृष्ण और अर्जुन के दिव्य शंख


ततः श्र्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ |
माधवः पाण्डवश्र्चैव दिव्यौ शङ्खौ प्रदध्मतुः || भ.गी. 1. १४ ||

दूसरी ओर से श्र्वेत घोड़ों द्वारा खींचे जाने वाले विशाल रथ पर आसीन कृष्ण तथा अर्जुन ने अपने-अपने दिव्य शंख बजाये |


महाभारत के युद्ध में कृष्ण और अर्जुन के शंखों को दिव्य कहा गया है। ये शंख केवल ध्वनि उत्पन्न नहीं करते, बल्कि विजय और शुभता का संकेत भी देते हैं। कृष्ण का पाञ्चजन्य शंख और अर्जुन का देवदत्त शंख यह सूचित करते हैं कि युद्ध में विजय पांडवों की ही होगी।

इन शंखों की दिव्यता यह दर्शाती है कि जहां भगवान कृष्ण विद्यमान होते हैं, वहां विजय और समृद्धि निश्चित होती है। यह दिव्य शंख ध्वनि यह भी बताती है कि जीवन में धर्म और सत्य के मार्ग पर चलने से ही सफलता प्राप्त होती है। कृष्ण और अर्जुन के शंखों की यह दिव्यता हमें यह सिखाती है कि सच्चाई और धर्म के मार्ग पर चलकर ही जीवन में विजय प्राप्त की जा सकती है।


#17. विजय की प्रतीक्षा और दिव्यता


महाभारत के युद्ध में कृष्ण और अर्जुन की उपस्थिति विजय की प्रतीक्षा और दिव्यता का प्रतीक है। जहां भगवान कृष्ण होते हैं, वहां विजय निश्चित होती है। अर्जुन के रथ पर हनुमान जी की उपस्थिति यह संकेत देती है कि जैसे रामायण में राम की विजय हुई थी, वैसे ही महाभारत में पांडवों की विजय होगी।

कृष्ण और अर्जुन की इस दिव्यता और विजय की प्रतीक्षा यह दर्शाती है कि जहां सत्य और धर्म होते हैं, वहां विजय निश्चित होती है। यह हमें यह सिखाती है कि जीवन में सच्चाई और धर्म के मार्ग पर चलकर ही सफलता और समृद्धि प्राप्त की जा सकती है। विजय की यह प्रतीक्षा और दिव्यता हमें यह भी बताती है कि सच्चाई और धर्म के मार्ग पर चलना ही जीवन का सही मार्ग है।


#18. निष्कर्ष


महाभारत के इस विश्लेषण से यह स्पष्ट होता है कि जीवन में गुणों का महत्व कितना अधिक है। दुर्योधन का रजोगुणी स्वभाव उसे विनाश की ओर ले जाता है, जबकि पांडवों का सतोगुणी स्वभाव उन्हें विजय की ओर अग्रसर करता है। यह दर्शाता है कि हमारे गुण ही हमारी दिशा निर्धारित करते हैं। भीष्म और द्रोणाचार्य जैसे अनुभवी और ज्ञानवान व्यक्तित्वों का दुर्योधन के प्रति व्यवहार यह स्पष्ट करता है कि जब तक हमारे अंदर स्वार्थ और अहंकार रहेगा, तब तक हम सच्ची शांति और विजय प्राप्त नहीं कर सकते। इसके विपरीत, अर्जुन और कृष्ण के दिव्य शंखों की ध्वनि यह संकेत देती है कि जहां धर्म और सत्य है, वहीं विजय है। यह पाठ हमें यह सिखाता है कि हमें अपने जीवन में सतोगुण को अपनाने का प्रयास करना चाहिए, ताकि हम भी अपनी जीवन यात्रा में सफल हो सकें। अंत में, यह कह सकते हैं कि भगवान की शरणागति ही एकमात्र मार्ग है, जो हमें जीवन के सभी दुःखों से उद्धार दिला सकता है।


#19. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ’s)


दुर्योधन और द्रोणाचार्य के बीच संवाद का क्या महत्व है और द्रोणाचार्य ने जवाब क्यों नहीं दिया?


दुर्योधन की पांडवों के प्रति द्वेष और राज्य प्राप्ति की इच्छा को द्रोणाचार्य समझते थे। उन्होंने दुर्योधन की महत्वाकांक्षाओं के कारण उसे उत्तर देना उचित नहीं समझा क्योंकि पांडव धर्म की स्थापना के लिए युद्ध कर रहे थे।


दुर्योधन के रजोगुणी स्वभाव के क्या लक्षण थे और वह कैसे पहचाना जा सकता है?


दुर्योधन का रजोगुणी स्वभाव उसकी इच्छाओं, लोभ, हिंसा, और अपवित्र दृष्टि में प्रकट होता है। वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरों का उपयोग करता था और अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए हिंसा करने को भी तैयार था।


भीष्म पितामह ने शंख क्यों बजाया और इसका क्या सांकेतिक अर्थ था?


भीष्म पितामह ने दुर्योधन को हर्षित करने के लिए शंख बजाया, लेकिन इसका सांकेतिक अर्थ यह था कि वह जानते थे कि पांडव पक्ष में भगवान कृष्ण हैं और युद्ध में विजय की वास्तविक आशा वहीं है।


कृष्ण और अर्जुन के शंख को 'दिव्य' क्यों कहा गया है?


कृष्ण और अर्जुन के शंख को 'दिव्य' इसलिए कहा गया है क्योंकि वे विजय और लक्ष्मी के प्रतीक हैं। जहां कृष्ण हैं, वहीं विजय निश्चित है, और उनके शंख की ध्वनि इस सत्य को दर्शाती है।


भीष्म पितामह को 'प्रतापी' और 'ज्ञान वृद्ध' क्यों कहा जाता है?


भीष्म पितामह को 'प्रतापी' इसलिए कहा जाता है क्योंकि वह निर्भय और प्रसिद्ध थे। 'ज्ञान वृद्ध' इसलिए कहा जाता है क्योंकि उनके पास अत्यधिक ज्ञान और अनुभव था जो उन्हें युद्ध और नीति में सक्षम बनाता था।


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Categories: : Article, Bhagavad Gita