कथा: ‘भगवान की पूजा या भक्त की सेवा?’

भगवान से भी ज्यादा महत्वपूर्ण है शुद्ध भक्तों की सेवा, क्योंकि शास्त्रों में स्वयं भगवान ने एकादश स्कंद में कहा है: मद्भक्तपूजाभ्यधिका – मेरे शुद्ध भक

प्राचीन काल की बात है। दक्षिण भारत में एक प्रसिद्ध मंदिर था, जहाँ हर दिन हजारों लोग भगवान विष्णु की आराधना के लिए आते थे। वहीं, उसी नगर में एक साधारण पर अत्यंत निष्कलंक वृद्ध संत रहा करते थे — नाम था भीक्तिदास। वे निर्धन थे, पर भगवान के प्रति उनकी श्रद्धा अगाध थी। वे नित्य भगवन्नाम का जप करते, भगवद्गीता का पाठ करते और हर आते-जाते यात्री की सेवा करते।

एक दिन एक युवा ब्राह्मण तीर्थयात्रा पर निकला। उसका उद्देश्य था — "हर प्रसिद्ध मंदिर में भगवान की पूजा करना"। वह उस मंदिर में भी पहुँचा जहाँ भगवान विष्णु का अर्चा विग्रह था। मंदिर में बड़ी भीड़ थी। घंटों दर्शन की प्रतीक्षा करनी पड़ी। जब उसकी बारी आई, तो उसने खूब सुंदर फूल, वस्त्र और मिठाइयाँ भगवान को अर्पित कीं, और हृदय से प्रार्थना की —

"हे प्रभु! मुझे सच्चा भक्ति ज्ञान दो। मुझे बताओ, आप किस सेवा से सबसे अधिक प्रसन्न होते हैं?"

रात को जब वह मंदिर के प्रांगण में सोया, भगवान ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए।


भगवान बोले:

"हे ब्राह्मण! तू मेरी भक्ति में लगा है, यह मुझे प्रसन्न करता है।
पर यदि तू मेरी सच्ची पूजा करना चाहता है, तो कल सुबह मेरी सेवा करने की बजाय, मेरे भक्त भीक्तिदास के पैर दबा देना।
मैं तेरे फूल, दीप और मंत्रों से उतना प्रसन्न नहीं हूँ, जितना उस सेवा से जो तू मेरे प्रिय भक्त को देगा।"

सुबह ब्राह्मण चौंक कर उठा। उसे पहले संदेह हुआ — क्या यह सचमुच भगवान ने कहा?
पर फिर उसने श्रद्धा से भीक्तिदास को खोज निकाला, जो एक कोने में बैठकर जप कर रहे थे। ब्राह्मण उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला:

"मैं आपके चरणों की सेवा करना चाहता हूँ। यह भगवान का आदेश है!"

भीक्तिदास मुस्कुराए। उन्होंने ब्राह्मण को उठाया और कहा:

"यह भगवान की ही महिमा है — वे अपने भक्तों को इतना आदर देते हैं कि अपनी पूजा से भी ऊपर रख देते हैं। पर भक्त की पहचान यही है कि वह अपने को भगवान से कम ही माने। चलो, हम दोनों मिलकर भगवान की सेवा करें।"

ब्राह्मण ने उस दिन केवल भगवान की नहीं, बल्कि भगवान के प्रेमी की सेवा करके वह आनंद प्राप्त किया जो वर्षों के पूजा-पाठ में नहीं मिला था।

🌺 कथा का संदेश:

श्रीमद्भागवतम् में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं:

"मद्भक्तपूजाभ्यधिका"
"मेरे भक्त की पूजा, मेरी पूजा से भी श्रेष्ठ है।" — (भागवत 11.19.21)

इसलिए यदि आपका मन कभी भगवान में न लगे — तो चिंता मत कीजिए।
उनके प्यारे भक्तों की सेवा कीजिए।
वहीं से रास्ता खुलेगा… और अंततः आप भगवान तक पहुँच ही जाएँगे।

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