इस लेख में जानिए कि किस तरह स्वार्थी प्रवृत्ति हमें वास्तविकता से दूर ले जाती है। एक नई दृष्टि के साथ इस दुनियाभर के संबंधों पर विचार करें।
इस संसार में जीवन की सच्चाई और माया के प्रभाव को समझना एक गहन और चुनौतीपूर्ण यात्रा है। हम सभी किसी न किसी रूप में मोहग्रस्त होते हैं, और स्वार्थ की जड़ों में बंधे रहते हैं। रिश्तों, धन, और समाज की अपेक्षाओं में हम खुद को खो बैठते हैं, लेकिन असल में ये सभी चीज़ें हमें केवल भ्रमित करती हैं। इस ब्लॉग में, हम इसी भ्रम की परतों को उधाड़ते हुए देखेंगे कि कैसे हम स्वार्थ, मोह और माया के जाल में फंसे रहते हैं।
प्रत्येक व्यक्ति अपने जीवन में किसी न किसी रूप में संबंधों का भ्रम, स्वार्थ का चक्र, और त्याग के भ्रम से जूझता है। यह यात्रा हमें दिखाती है कि इन सभी चीजों से परे एक सच्ची भक्ति का मार्ग है, जो कृष्ण-कृपा से प्राप्त होता है। हमारा लक्ष्य यह है कि हम खुद को, अपने स्वभाव को और अपने अस्तित्व को गहरे से समझें।
यह ब्लॉग उन सभी सवालों का जवाब देने का प्रयास करता है, जो हमारे जीवन में इन भावनाओं और जटिलताओं को लेकर उत्पन्न होते हैं।
मनुष्य जन्म से ही किसी न किसी मोह से बंधा होता है। यह मोह माता-पिता से, धन-संपत्ति से, समाज में प्रतिष्ठा से या फिर अपने सपनों से हो सकता है। हम जिस भी चीज़ को अपना मान लेते हैं, उसी से लगाव पैदा हो जाता है, और यही लगाव हमें जकड़ लेता है।
मोह की जंजीरें इतनी सूक्ष्म होती हैं कि हमें महसूस भी नहीं होता कि हम बंधे हुए हैं। उदाहरण के लिए, माता-पिता अपने बच्चों के लिए सर्वश्रेष्ठ चाहते हैं, लेकिन कई बार उनका यही मोह बच्चों की स्वतंत्रता पर बोझ बन जाता है। इसी प्रकार, धन का मोह हमें लालची बना सकता है, और समाज में सम्मान का मोह हमें दिखावे की दुनिया में धकेल देता है।
वास्तव में, मोह हमें भ्रम में डालता है और हमारे निर्णयों को प्रभावित करता है। हम जिनसे अत्यधिक लगाव रखते हैं, उनके लिए निःस्वार्थ प्रेम का दावा करते हैं, लेकिन जब वही हमें छोड़ देते हैं या हमारी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरते, तो हमें दुःख होता है। यही साबित करता है कि हमारा प्रेम शुद्ध नहीं था, बल्कि उसमें स्वार्थ छिपा था।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह संपूर्ण संसार तीन गुणों—सत्त्व, रज और तम—के प्रभाव में है, और यही गुण जीव को मोह में डाल देते हैं।
🔹 भगवद गीता 7.13
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्॥
तीनों गुणों (सत्त्व, रज, तम) से प्रभावित यह संपूर्ण जगत मोहित हो जाता है और मुझे, जो इन सबसे परे और अविनाशी हूँ, नहीं जान पाता।
🔹 श्रीमद्भागवत 11.2.37
भयं द्वितीयाभिनिवेशतः स्याद्
ईशादपेतस्य विपर्ययोऽस्मृतिः।
जब जीव भगवान से विमुख होकर द्वैत (मैं और मेरा) में आसक्त हो जाता है, तो उसे भय और मोह घेर लेते हैं। वह अपनी वास्तविक स्थिति को भूलकर संसार के भ्रम में फँस जाता है।
मनुष्य के सभी कार्यों के मूल में कहीं न कहीं स्वार्थ छिपा होता है। यह स्वार्थ कभी प्रत्यक्ष रूप से दिखता है, तो कभी परोक्ष रूप से। बचपन से ही हम अपने लाभ और सुख की ओर आकर्षित होते हैं। समाज, रिश्ते, धर्म और नैतिकता, सब कुछ कहीं न कहीं इसी स्वार्थ के इर्द-गिर्द घूमता है।
हम जब किसी की सहायता करते हैं, तो अक्सर इसके पीछे भी किसी न किसी प्रकार का स्वार्थ होता है। यह स्वार्थ कभी मान-सम्मान का हो सकता है, कभी पुण्य कमाने का, तो कभी एक दिन बदले में कुछ पाने की आशा का। यहां तक कि माता-पिता का अपने बच्चों के प्रति प्रेम भी स्वाभाविक रूप से इस स्वार्थ से जुड़ा होता है कि वे भविष्य में उनकी देखभाल करेंगे या उनकी इच्छाओं को पूरा करेंगे।
स्वार्थ का चक्र कभी समाप्त नहीं होता। यह व्यक्ति, परिवार, समाज और पूरे विश्व को नियंत्रित करता है। राष्ट्र अपने हित के लिए दूसरे राष्ट्रों के साथ संबंध बनाते और तोड़ते हैं। मित्रता और शत्रुता दोनों स्वार्थ पर निर्भर करती हैं।
मनुष्य का हर कार्य किसी न किसी स्वार्थ से प्रेरित होता है। भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि कर्म केवल भगवान की सेवा के लिए किया जाना चाहिए, अन्यथा यह कर्मबंधन का कारण बनता है।
🔹 भगवद गीता 3.9
यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर॥
यदि कर्म यज्ञ (भगवान की सेवा) के लिए नहीं किया जाता, तो वह कर्मबंधन का कारण बनता है। इसलिए, हे अर्जुन! आसक्ति से मुक्त होकर कर्म करो।
🔹 श्रीमद्भागवत 1.2.6
स वै पुंसां परो धर्मो यतो भक्तिरधोक्षजे।
अहैतुक्यप्रतिहता ययाऽत्मा सुप्रसीदति॥
मनुष्यों का सर्वोच्च धर्म वह है जिससे भगवान श्रीहरि की अहैतुकी भक्ति उत्पन्न हो। ऐसी भक्ति अडिग होती है और आत्मा को परम शांति प्राप्त होती है।
हमारा जीवन अनेक रिश्तों से बंधा हुआ है—माता-पिता, भाई-बहन, मित्र, जीवनसाथी और समाज के अन्य लोग। हम इन संबंधों को अपना आधार मानते हैं और विश्वास करते हैं कि ये सच्चे और अटूट हैं। लेकिन जब किसी रिश्ते की वास्तविकता को गहराई से देखते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि अधिकतर संबंधों की बुनियाद किसी न किसी स्वार्थ पर ही टिकी होती है।
जब तक कोई रिश्ता हमारी अपेक्षाओं को पूरा करता है, तब तक वह मधुर लगता है। लेकिन जैसे ही अपेक्षाएँ टूटती हैं, वही संबंध बोझिल या कष्टदायक हो जाता है। उदाहरण के लिए, माता-पिता बच्चों से प्रेम करते हैं, लेकिन यदि वही संतान उनकी इच्छाओं के विपरीत निर्णय लेती है, तो यह प्रेम क्रोध या नाराजगी में बदल जाता है। मित्रता भी तब तक प्रगाढ़ रहती है जब तक दोनों पक्षों को एक-दूसरे से लाभ मिलता है।
संबंधों का भ्रम हमें बांधे रखता है और हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि कोई न कोई हमारे साथ हमेशा खड़ा रहेगा। लेकिन जब विपत्ति आती है, तो हमें पता चलता है कि असली सहारा केवल आत्मनिर्भरता,आत्मज्ञान एवं ईश्वर हैं।
हम अपने जीवन को विभिन्न रिश्तों से जोड़कर देखते हैं, लेकिन जब इन्हें गहराई से समझते हैं, तो पाते हैं कि अधिकतर संबंध किसी न किसी स्वार्थ पर टिके होते हैं।
🔹 भगवद गीता 5.29
भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम्।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
जो यह समझ लेता है कि मैं (श्रीकृष्ण) ही सभी यज्ञों और तपस्याओं का भोक्ता, समस्त लोकों का स्वामी और सभी जीवों का सच्चा मित्र हूँ, उसे वास्तविक शांति प्राप्त होती है।
हम अक्सर यह विश्वास करते हैं कि कुछ लोग हमारे रक्षक हैं—माता-पिता, मित्र, जीवनसाथी, समाज, या फिर ईश्वर। जब हम संकट में होते हैं, तो उम्मीद करते हैं कि कोई हमारी रक्षा करेगा। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा होता है?
अगर ध्यान से देखा जाए, तो हर व्यक्ति पहले अपने हित को देखता है, फिर दूसरों की सहायता करता है। माता-पिता बच्चों की रक्षा करते हैं, लेकिन उनके मन में यह भी होता है कि बुढ़ापे में बच्चे उनका सहारा बनेंगे। मित्र जरूरत में मदद करते हैं, लेकिन वे भी बदले में उम्मीद रखते हैं कि जब वे मुसीबत में होंगे, तो हम उनका साथ देंगे। यहां तक कि समाज भी उन्हीं को रक्षक मानता है जो किसी न किसी रूप में उसके लिए उपयोगी होते हैं।
अक्सर लोग दूसरों की रक्षा करने का दावा करते हैं, लेकिन जब असली परीक्षा आती है, तो वे अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देते हैं। यही कारण है कि जीवन में बार-बार हमें यह एहसास होता है कि कोई भी सच्चा रक्षक नहीं है। असली सुरक्षा आत्मनिर्भरता और अपनी कृष्ण-चेतना को जागृत करने में ही है।
🔹 श्रीमद्भागवत 5.5.8
कः पुत्रः कः पिता यस्य
कः स्वजनः किमु साधवः।
सर्वं दण्डधरो राजा
शास्ति यक्ष्यत्यपि स्वयम्॥
कौन पुत्र है? कौन पिता है? कौन सगा है? जब अंत में मृत्यु रूपी राजा सभी को दंडित करेगा, तो कोई किसी की रक्षा नहीं कर सकता।
➡️ इस श्लोक में बताया गया है कि सांसारिक संबंध केवल माया का खेल हैं। जब संकट आता है, तो कोई भी किसी की रक्षा नहीं कर सकता।
🔹 भगवद गीता 9.33
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
यह संसार अनित्य (अस्थायी) और दुखमय है। इसलिए, मेरे (श्रीकृष्ण) की भक्ति करो।
➡️ इस श्लोक में भगवान श्रीकृष्ण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि यह संसार स्थायी नहीं है और यहाँ कोई भी सच्चा रक्षक नहीं है। केवल भगवान की शरण में जाकर ही हम वास्तविक सुरक्षा पा सकते हैं।
त्याग शब्द सुनने में बहुत महान लगता है, लेकिन क्या यह वास्तव में संभव है? क्या कोई व्यक्ति निःस्वार्थ होकर कुछ त्याग सकता है, बिना किसी अपेक्षा के? अक्सर हम सुनते हैं कि माता-पिता अपने बच्चों के लिए त्याग करते हैं, सैनिक देश के लिए बलिदान देता है, संन्यासी संसार का परित्याग करता है। लेकिन क्या यह त्याग वास्तव में निःस्वार्थ होता है?
अगर गहराई से देखें, तो त्याग के पीछे भी कहीं न कहीं कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है। माता-पिता का त्याग मोह और आशा से जुड़ा होता है कि उनकी संतान उनका नाम रोशन करेगी या उनका सहारा बनेगी। सैनिक का बलिदान कर्तव्य, देशभक्ति और सम्मान की भावना से प्रेरित होता है। संन्यासी भी आत्मज्ञान और मुक्ति की खोज में संसार का त्याग करता है। जब तक कि उसका लक्ष्य कृष्ण की सेवा या उनकी प्रसन्नता नहीं है। यानी हर त्याग के पीछे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी न किसी प्रकार की आशा या अपेक्षा होती है।
🔹 भगवद गीता 6.1
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः॥
जो व्यक्ति बिना किसी फल की इच्छा के अपने कर्तव्यों का पालन करता है, वही सच्चा संन्यासी और योगी है। केवल बाहरी रूप से संन्यास धारण कर लेने से कोई त्यागी नहीं बन जाता।
👉 इसलिए, सच्चा त्याग निःस्वार्थ होकर कार्य करना है, न कि केवल दिखावटी रूप से वस्तुओं या कर्तव्यों को त्यागना। 🚩
क्या मनुष्य जन्म से ही स्वार्थी होता है, या समाज और परिस्थितियाँ उसे स्वार्थी बना देती हैं? यह एक गहरा प्रश्न है, जिस पर सदियों से विचार किया जाता रहा है। कुछ मानते हैं कि मनुष्य का स्वभाव जन्मजात होता है, जबकि अन्य कहते हैं कि उसके संस्कार और परिवेश ही उसे आकार देते हैं।
अगर हम एक छोटे बच्चे को देखें, तो वह केवल अपने सुख-दुःख को समझता है। जब उसे भूख लगती है, तो वह रोता है; जब वह कुछ चाहता है, तो उसे पाने की ज़िद करता है। यह स्वभाव उसे प्रकृति से मिला होता है। लेकिन जैसे-जैसे वह बड़ा होता है, समाज उसे संस्कारों की शिक्षा देने लगता है—"बड़ों का सम्मान करो", "दूसरों की मदद करो", "स्वार्थी मत बनो" आदि। ये संस्कार उसे स्वार्थ से ऊपर उठाने का प्रयास करते हैं, लेकिन क्या यह पूरी तरह संभव है?
जब भी कोई संकट आता है, मनुष्य का वास्तविक स्वभाव उभरकर सामने आता है। वह पहले अपनी सुरक्षा, सुख और हितों के बारे में सोचता है, फिर दूसरों के बारे में। यानी संस्कार चाहे कितने भी मजबूत हों, मूल स्वभाव अवसर मिलते ही हावी हो जाता है।
🔹 भगवद गीता 3.33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति॥
प्रत्येक व्यक्ति अपनी प्रकृति के अनुसार आचरण करता है, भले ही वह ज्ञानी क्यों न हो। प्रकृति का प्रभाव इतना शक्तिशाली होता है कि उसे बलपूर्वक दबाया नहीं जा सकता।
👉 अर्थात, मनुष्य का स्वभाव जन्मजात होता है और वह उसी के अनुसार कार्य करता है। समाज उसे संस्कारित करने की कोशिश करता है, लेकिन संकट के समय उसकी मूल प्रकृति उभरकर सामने आ जाती है।
🔹 भगवद गीता 3.37
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्॥
श्रीकृष्ण कहते हैं कि स्वार्थ और अन्य बुराइयों का मूल कारण काम (इच्छा) और क्रोध है, जो रजोगुण से उत्पन्न होते हैं। यह मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है।
👉 जब तक मनुष्य की इच्छाएँ हैं, तब तक वह स्वार्थ से मुक्त नहीं हो सकता। इसलिए स्वार्थ केवल बाहरी कारणों से नहीं आता, बल्कि यह उसके भीतर मौजूद इच्छाओं से उत्पन्न होता है।
माया का अर्थ है भ्रम—एक ऐसी शक्ति जो हमें वास्तविकता से दूर रखती है और मोह, स्वार्थ, और इच्छाओं में उलझाए रखती है। यही माया हमें अपने नाते-रिश्तेदारों, धन-संपत्ति, प्रतिष्ठा और संसार की अन्य चीज़ों को ही सत्य मानने के लिए बाध्य करती है। लेकिन क्या यह सब वास्तव में स्थायी है?
अगर हम अपने जीवन को देखें, तो हर चीज़ परिवर्तनशील है। जिस शरीर को हम अपना मानते हैं, वह भी एक दिन नष्ट हो जाता है। जिन रिश्तों पर हम गर्व करते हैं, वे समय और परिस्थितियों के साथ बदल जाते हैं। जिस संपत्ति को हम सुरक्षित समझते हैं, वह भी खो सकती है। फिर भी हम इन सबके प्रति आकर्षित रहते हैं और इन्हें ही अपनी पहचान मान बैठते हैं।
माया का सबसे बड़ा प्रभाव यह है कि यह हमें वास्तविकता से अंधा कर देती है। हम सोचते हैं कि हम अपने जीवन के कर्ता हैं, लेकिन वास्तव में हम माया की कठपुतलियाँ हैं, जो हमारे मोह और स्वार्थ से नियंत्रित होती हैं।
जब हर रिश्ता स्वार्थ से जुड़ा हो, जब हर संबंध माया के जाल में बंधा हो, तो क्या कोई वास्तव में मुक्त हो सकता है? यह प्रश्न हर विचारशील व्यक्ति के मन में उठता है। वास्तविक मुक्ति का अर्थ केवल शरीर छोड़ना नहीं, बल्कि मोह, स्वार्थ और माया के प्रभाव से परे जाना है।
सच्ची मुक्ति तब मिलती है जब हम अपने भीतर की वास्तविकता को पहचानते हैं। इसका पहला कदम है स्वयं को जानना—हम कौन हैं, हमारा अस्तित्व क्या है, और हमारा अंतिम लक्ष्य क्या होना चाहिए। भगवान कौन है, हमारा उनसे संबंध क्या है जब तक हम बाहरी संसार के आकर्षणों में उलझे रहेंगे, तब तक मुक्ति असंभव है।
दूसरा कदम है साक्षी भाव—हम जीवन की घटनाओं को केवल एक दर्शक की तरह देखें, न कि उनमें उलझें। जो आया है, वह जाएगा; जो मिला है, वह छूटेगा—इस सत्य को स्वीकार कर लेने से जीवन में हल्कापन आ जाता है क्योंकि जो भी हमारे जीवन मे घटनाएं, वस्तुएं आती-जाती है वो हमारे प्रारब्ध से प्राप्त होती है।
अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण मार्ग है निष्काम कर्म या शरणागती—बिना किसी स्वार्थ के कर्म करना। जो कि केवल भगवान के निमित्त हो सकता है। जब हम फल की चिंता किए बिना कार्य करते हैं, तो हम माया से ऊपर उठने लगते हैं क्योंकि फल प्रदाता तो कृष्ण है।
इसलिए, वास्तविक मुक्ति बाहर नहीं, बल्कि कृष्ण की ओर अर्थात् कृष्णभावनामृत होने में है। यह एक मानसिक अवस्था है, जहाँ हम संसार में रहकर भी इससे बंधे नहीं होते। क्योंकि सारे कर्म एवं सेवाऐं तो भगवान के लिए हो रही होती हैं। अर्थात् भगवान की सेवा ही वास्तविक मुक्ति का मार्ग है जहां मुक्ति भी पीछे छूट जाती है और भगवद्-प्रेम की बात होती है। जो कि केवल भगवान की सेवा से ही मिल सकती है। इसलिए कृष्ण ही एकमात्र हमारे रक्षक है। इसलिए उन्हीं की शरणागति लेने पर ही हमारी रक्षा जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि से हो पाएगी और हम इस संसार में रहते हुए आनन्द में होगें।
भगवान श्रीकृष्ण गीता में स्पष्ट कहते हैं कि जो मेरी शरण में आता है, वही सच्ची मुक्ति को प्राप्त करता है।
🔹 भगवद गीता 18.66
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
सब धर्मों को त्याग कर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, शोक मत करो।
🔹 श्रीमद्भागवत 10.14.58
समाश्रिता ये पदपल्लवप्लवं
महत्पदं पुण्ययशो मुरारेः।
भवाम्बुधिर्वत्सपदं परं पदं
पदं पदं यद्विपदां न तेषाम्॥
जो लोग भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की नौका को आश्रय लेते हैं, वे संसार रूपी भवसागर को आसानी से पार कर लेते हैं। उनके लिए यह संसार वैसा ही होता है जैसे बछड़े के खुर की एक छोटी सी गड्ढी।
इस लेख में हमनें यह देखा कि संसार में हर व्यक्ति किसी न किसी प्रकार के मोह और स्वार्थ का शिकार होता है। यह मोह हमें भ्रमित करता है और हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमारे संबंधों, संपत्ति और प्रतिष्ठा से ही हमारी पहचान है। लेकिन असलियत में, ये सभी चीजें समय के साथ बदलती हैं और हमें केवल भ्रम में रखते हैं।
वास्तविक मुक्ति भगवान की सेवा में है अर्थाैत् भक्ति में हैं। जिससे अपना तो आत्मकल्याण होता ही है दूसरों का हित भी इसमें निहित होता है।
हरे कृष्ण!
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