शरीर में परिवर्तन होता है आत्मा में नहीं || Bhagvad Gita 2.13

जानिए कैसे शरीर में परिवर्तन होता है, लेकिन आत्मा में नहीं। भगवद गीता 2.13 के इस गहरे संदेश को समझें और जीवन के सत्य को पहचानें!


#1. परिचय


भगवद्गीता के अध्याय 2, श्लोक 13 में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को आत्मा और शरीर के शाश्वत सत्य के बारे में ज्ञान दिया। यह श्लोक जीवन और मृत्यु के चक्र के बारे में एक गहरी समझ प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि शरीर नश्वर है और परिवर्तनशील है जबकि आत्मा अमर और अपरिवर्तनीय है।


देहिनोSस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा |
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति || 13 ||

जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस (वर्तमान) शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरन्तर अग्रसर होता रहता है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चला जाता है | धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता |


#2. शरीर का परिवर्तन


इस संसार में शरीर निरंतर परिवर्तनशील है। बचपन से लेकर जवानी और फिर बुढ़ापे तक शरीर का स्वरूप बदलता रहता है। जैसे-जैसे हम बढ़ते हैं, हमारी इच्छाएं, दृष्टिकोण और अनुभूतियाँ भी बदलती हैं। लेकिन इन सबके पीछे जो आत्मा है, वह स्थिर रहती है। शरीर के परिवर्तन के बावजूद आत्मा का कोई परिवर्तन नहीं होता।


#3. आत्मा का शाश्वत स्वरूप

भगवान कृष्ण बताते हैं कि आत्मा शाश्वत है। जब शरीर मृत्यु को प्राप्त होता है, आत्मा एक नए शरीर में प्रवेश करती है। यह प्रक्रिया वैसी ही है जैसे हम पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करते हैं। आत्मा अनादि और अनंत है, जो शरीर के नष्ट हो जाने पर भी अपनी वास्तविकता में बनी रहती है।


कथारूप (तत्व को समझने के दृष्टिकोण से)

प्राचीन काल की बात है, जब युद्धभूमि में दो योद्धा आमने-सामने खड़े थे। यह समय महाभारत का था, जब पांडव और कौरवों के बीच युद्ध छिड़ा था। इस महायुद्ध के दौरान अर्जुन, जो एक महान योद्धा थे, अपने प्रिय जनों के खिलाफ युद्ध करने के विचार से विचलित हो गए। उनके मन में शोक और मोह का सागर उमड़ने लगा। ऐसे समय में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को भगवद्गीता का उपदेश दिया, जो जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर करता है।

भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को समझाया कि आत्मा अमर है और शरीर नश्वर। उन्होंने कहा, "हे अर्जुन, जिस प्रकार शरीरधारी आत्मा इस वर्तमान शरीर में बाल्यावस्था से तरुणावस्था में और फिर वृद्धावस्था में निरंतर अग्रसर होती रहती है, उसी प्रकार मृत्यु होने पर आत्मा दूसरे शरीर में चली जाती है। धीर व्यक्ति ऐसे परिवर्तन से मोह को प्राप्त नहीं होता।"

अर्जुन को यह समझाने के लिए श्रीकृष्ण ने एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत किया। उन्होंने कहा कि जिस प्रकार हम अपने वस्त्रों को बदलते हैं, उसी प्रकार आत्मा भी शरीर को छोड़कर नया शरीर धारण करती है। जैसे बचपन में हम खेल-कूद में मग्न होते हैं, युवा अवस्था में यौन इच्छाएं और ऐश्वर्य की कामना करते हैं, और वृद्धावस्था में नई अनुभूतियां प्राप्त करते हैं, वैसे ही शरीर बदलता है, परंतु आत्मा नहीं बदलती। आत्मा शाश्वत है और हर अवस्था में वही रहती है।

श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह भी बताया कि मृत्यु के समय आत्मा नया शरीर धारण करती है, जो उसके कर्मों के अनुसार होता है। अर्जुन को शोक करने का कोई कारण नहीं था, क्योंकि उसके प्रियजन केवल शरीर बदल रहे थे, आत्मा नहीं।

इस उपदेश के माध्यम से श्रीकृष्ण ने अर्जुन को धीरता और संयम का पाठ पढ़ाया। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति आत्मा, परमात्मा और प्रकृति के स्वरूप का पूर्ण ज्ञान रखता है, वही धीर होता है। ऐसा व्यक्ति शरीर के परिवर्तन से भ्रमित नहीं होता।

अर्जुन ने श्रीकृष्ण के उपदेश को समझा और अपने मोह से मुक्त होकर युद्ध के लिए तैयार हो गए। इस प्रकार भगवद्गीता के इस श्लोक ने जीवन के गूढ़ रहस्यों को उजागर किया और यह सिखाया कि आत्मा अमर है और हमें जीवन के परिवर्तन से विचलित नहीं होना चाहिए।

इस कहानी के माध्यम से हम समझ सकते हैं कि जीवन में आने वाले परिवर्तन केवल भौतिक होते हैं। आत्मा शाश्वत है और परिवर्तन से परे है। हमें अपने जीवन में धीरता और संयम को अपनाना चाहिए ताकि हम भी अर्जुन की तरह अपने कर्तव्यों का पालन कर सकें। हरे कृष्ण।


#4. मोह और मोह का निवारण


अर्जुन अपने प्रियजनों की मृत्यु के विचार से मोहग्रस्त हो गए थे। भगवान कृष्ण ने उन्हें समझाया कि आत्मा न तो मरती है और न ही जन्म लेती है। इसलिए मृत्यु के कारण शोक करना अनुचित है। धीर व्यक्ति वही होता है जो इस सत्य को समझता है और मोह के बंधनों से मुक्त रहता है।


#5. धीरता और विवेक


धीरता और विवेक बुद्धि के गुण हैं। धीर व्यक्ति मोह और भ्रम से परे होता है। वह जानता है कि आत्मा और शरीर के बीच का अंतर क्या है। धीर व्यक्ति की बुद्धि स्थिर होती है और वह जीवन के उतार-चढ़ावों में स्थिर रहता है।


#6. अध्यात्मिक ज्ञान का महत्व


अध्यात्मिक ज्ञान से ही व्यक्ति धीर और विवेकशील बन सकता है। इसके लिए व्यक्ति को रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर सतोगुण में प्रवेश करना पड़ता है। सतोगुण में ही व्यक्ति ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर सकता है और आत्मा के शाश्वत सत्य को समझ सकता है।


#7. निष्कर्ष


भगवद्गीता का यह श्लोक आत्मा और शरीर के शाश्वत सत्य को समझने का एक अद्भुत माध्यम है। यह हमें सिखाता है कि जीवन में धीरता और विवेक के साथ कैसे आगे बढ़ा जाए। आत्मा का शाश्वत स्वरूप हमें जीवन के प्रति एक नई दृष्टि देता है और हमें मोह और भ्रम से मुक्त करता है। हरे कृष्ण।


#8. अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ's)


प्रश्न 1: आत्मा और शरीर में क्या अंतर है?

उत्तर: शरीर परिवर्तनशील है और बाल्यावस्था से वृद्धावस्था तक बदलता रहता है, जबकि आत्मा अपरिवर्तनीय और नित्य होती है।

प्रश्न 2: शरीर के बदलने पर आत्मा का क्या होता है?

उत्तर: शरीर के नष्ट होने पर आत्मा एक नए शरीर में प्रवेश करती है, जैसे हम पुराने कपड़े बदलकर नए पहन लेते हैं।

प्रश्न 3: धीर व्यक्ति कौन होता है और वह कैसे आत्मा के विषय को समझता है?

उत्तर: धीर व्यक्ति वह होता है जो शरीर के परिवर्तन से मोह नहीं करता और आत्मा की नित्य प्रकृति को समझता है। वह संयमी और विवेकशील होता है।

प्रश्न 4: आध्यात्मिक बुद्धि का महत्व क्या है?

उत्तर: आध्यात्मिक बुद्धि व्यक्ति को आत्मा और शरीर के भेद को समझने में सहायता करती है, जिससे वह मोह और भ्रम से मुक्त हो सकता है।

प्रश्न 5: कैसे हम धीरता प्राप्त कर सकते हैं?

उत्तर: धीरता प्राप्त करने के लिए हमें रजोगुण और तमोगुण से ऊपर उठकर सतोगुण को अपनाना होगा, जिससे हम आत्मा के सत्य स्वरूप को समझ सकें।


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