भगवान के प्रति इंद्रियों को समर्पित करने से जीवन में वास्तविक आनंद प्राप्त होता है। जानें कैसे यह साधना आपके जीवन को बदल सकती है।
मानव जीवन अनेक रहस्यों और अनुभूतियों से भरा हुआ है। हम अपनी इंद्रियों के माध्यम से इस संसार को देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूंघते और अनुभव करते हैं। लेकिन अक्सर, यह इंद्रियाँ हमें बाहरी सुख-सुविधाओं में उलझाकर मोह-माया की जटिलताओं में फंसा देती हैं। इनका अनुचित उपयोग हमें भौतिक इच्छाओं की ओर खींचकर अधूरी संतुष्टि की स्थिति में ले आता है। लेकिन जब इन्हें भगवान के प्रति समर्पित कर दिया जाता है, तब हमें जीवन का वास्तविक आनंद और आध्यात्मिक उन्नति प्राप्त होती है।
प्रत्येक धर्म और आध्यात्मिक परंपरा यह बताती है कि सच्चा सुख बाहरी वस्तुओं में नहीं, बल्कि ईश्वर के प्रति समर्पण और आत्मज्ञान में है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:
"यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम्। नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता॥" (भगवद गीता 2.57)
अर्थात, जो व्यक्ति संसार की इच्छाओं से परे रहता है और जीवन की हर स्थिति में समभाव बनाए रखता है, वही सच्चे आनंद को प्राप्त करता है।
हमारी इंद्रियाँ स्वभाव से ही संसार की ओर आकर्षित होती हैं। इनकी प्रवृत्ति है बाहरी वस्तुओं में आनंद की खोज करना।
यदि हम इन इंद्रियों को केवल सांसारिक भोग-विलास में लगाते हैं, तो वे हमें दुख और अशांति की ओर ले जाएँगी। लेकिन जब इन्हें ईश्वर के प्रति समर्पित किया जाता है, तो ये हमारे आत्मिक उत्थान का माध्यम बन जाती हैं।
कथारूप - ईश्वर की राह पर एक संत की यात्रा
गंगा नदी के किनारे बसे एक छोटे से गाँव में एक युवक रहता था, जिसका नाम अर्जुन था। वह बुद्धिमान और परिश्रमी था, लेकिन उसका मन हमेशा सांसारिक सुखों की खोज में भटकता रहता था। धन, ऐश्वर्य और भोग विलास की आकांक्षा ने उसके हृदय को इस कदर जकड़ लिया था कि वह सच्चे सुख और शांति से अनजान था।
एक दिन, अर्जुन की मुलाकात गाँव के एक वृद्ध संत महात्मा आनंद से हुई। वे सादा जीवन जीते थे, लेकिन उनके चेहरे पर अपार शांति और दिव्यता झलकती थी। अर्जुन ने उनसे पूछा, "गुरुदेव, आप इस संसार में कोई भौतिक सुख नहीं भोगते, फिर भी आपके चेहरे पर इतनी शांति और संतोष कैसे है?"
महात्मा आनंद मुस्कुराए और बोले, "बेटा, जीवन का वास्तविक आनंद तब मिलता है जब हम अपनी इंद्रियों को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं। संसार के सुख क्षणिक होते हैं, लेकिन ईश्वर की भक्ति अनंत शांति और आनंद प्रदान करती है।"
अर्जुन के मन में यह विचार गहराई तक उतर गया, लेकिन वह अभी भी पूरी तरह से आश्वस्त नहीं था। तब संत ने उसे एक यात्रा पर साथ चलने के लिए आमंत्रित किया। अर्जुन उत्सुकतापूर्वक उनके साथ चल पड़ा।
वे दोनों गंगा किनारे एक जंगल में पहुँचे, जहाँ संत ने अर्जुन से कहा, "अपनी आँखें बंद करो और केवल अपने कानों से सुनो।"
अर्जुन ने आँखें बंद कीं और ध्यान से सुनने लगा। उसे पक्षियों का मधुर संगीत, बहती गंगा की कलकल ध्वनि और पेड़ों की सरसराहट सुनाई दी। संत बोले, "अब सोचो, ये ध्वनियाँ कैसी हैं?"
अर्जुन ने उत्तर दिया, "ये बहुत मधुर और शांतिदायक हैं।"
संत ने कहा, "जब तुम अपने कानों को केवल आध्यात्मिक और सकारात्मक ध्वनियों की ओर मोड़ते हो, तब तुम्हारे मन को शांति प्राप्त होती है। यही कारण है कि भजन, कीर्तन और मंत्र जाप करने से हमें आंतरिक आनंद मिलता है।"
अर्जुन प्रभावित हुआ और दोनों आगे बढ़े। कुछ दूर जाने के बाद, वे एक मंदिर पहुँचे। संत ने अर्जुन से कहा, "अब अपनी आँखें खोलो और मंदिर के भीतर देखो।"
अर्जुन ने जैसे ही आँखें खोलीं, उसने देखा कि मंदिर में भगवान की सुंदर मूर्ति थी, जिसके चारों ओर दीप जल रहे थे और वातावरण में अद्भुत शांति थी। संत बोले, "जब हम अपनी दृष्टि को ईश्वर के दर्शन और पवित्र ग्रंथों के अध्ययन में लगाते हैं, तब हमारे मन की चंचलता समाप्त हो जाती है और हमें वास्तविक आनंद की अनुभूति होती है।"
अब अर्जुन का मन पूरी तरह से बदलने लगा था। संत ने उसे एक पेड़ के नीचे बैठाया और कहा, "अब अपने जीभ का ध्यान करो। हम अक्सर इसे स्वादिष्ट भोजन और व्यर्थ की बातें करने में लगाते हैं, लेकिन यदि इसे भक्ति में लगाया जाए, तो यह भी मोक्ष का साधन बन सकती है। इसलिए, मधुर वाणी बोलो और भगवान के नाम का जाप करो।"
अर्जुन ने महसूस किया कि जीवन में सच्ची शांति केवल भक्ति और सेवा से ही प्राप्त हो सकती है। उसने संत से प्रार्थना की, "गुरुदेव, मैं भी अपनी इंद्रियों को भगवान के प्रति समर्पित करना चाहता हूँ। कृपया मुझे मार्गदर्शन दें।"
महात्मा आनंद प्रसन्न हुए और बोले, "अब तुम सच्चे आनंद के मार्ग पर हो। अपनी आँखों से भगवान की लीलाएँ देखो, अपने कानों से भजन सुनो, अपनी जीभ से उनका नाम लो, अपने हाथों से सेवा करो और अपनी नाक से पवित्र सुगंध का अनुभव करो। यही जीवन का परम लक्ष्य है।"
अर्जुन ने संत के चरणों में शीश झुकाया और उसी दिन से एक नया जीवन आरंभ किया। उसने अपनी सारी इंद्रियों को भगवान की भक्ति में लगा दिया और धीरे-धीरे उसे वह दिव्य आनंद प्राप्त हुआ, जो धन और ऐश्वर्य से कहीं बढ़कर था।
इस प्रकार, अर्जुन की यात्रा उसे सांसारिक भोगों से आध्यात्मिक शांति की ओर ले गई, और उसने अनुभव किया कि जीवन का वास्तविक आनंद तब ही संभव है जब हम अपनी इंद्रियों को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं।
हमारी आँखें वह द्वार हैं, जिनसे ज्ञान और भक्ति का प्रवेश होता है। हमें चाहिए कि हम अपनी दृष्टि को शुद्ध और पवित्र रखें। इसके लिए:
जो हम सुनते हैं, वही हमारे विचारों को निर्मित करता है। यदि हम नकारात्मकता, क्रोध, ईर्ष्या और अपमानजनक शब्द सुनते हैं, तो हमारे भीतर वैसी ही भावनाएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए:
जीभ का उपयोग दो रूपों में होता है—बोलने और खाने के लिए। दोनों ही जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।
हमारे हाथों से हम जो कार्य करते हैं, वह न केवल हमारे कर्मों को निर्धारित करता है, बल्कि हमारे जीवन का उद्देश्य भी स्पष्ट करता है।
भगवान को चढ़ाए गए पुष्पों और धूप की सुगंध हमें आंतरिक शांति प्रदान करती है।
जब हम अपनी इंद्रियों को भगवान के प्रति समर्पित कर देते हैं, तो हमें निम्नलिखित लाभ मिलते हैं:
मानव जीवन का उद्देश्य केवल भौतिक सुखों की प्राप्ति नहीं है, बल्कि आत्मा की शुद्धि और परम आनंद की अनुभूति भी है। यदि हम अपनी इंद्रियों को अनुशासित कर उन्हें भगवान की सेवा में लगा देते हैं, तो न केवल हमें मानसिक और आध्यात्मिक संतोष मिलेगा, बल्कि हम अपने जीवन के वास्तविक उद्देश्य को भी प्राप्त कर पाएँगे।
इसलिए, अपनी इंद्रियों को व्यर्थ की इच्छाओं से मुक्त करें और उन्हें भगवान के चरणों में समर्पित करें—यही सच्चे आनंद का मार्ग है।
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